गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

पानी से भी अधिक है संवेदना का अकाल

पानी से भी अधिक है संवेदना का अकाल
महाराष्ट्र में 11साल की योगिता ने पानी लाने की जद्दोजहत में दम तोड़ दिया।एनडीटीवी के रवीश कुमार ने (19,4,16) का प्राइम टाइम पूरे सूखाग्रस्त महाराष्ट्र में परिवार के लिए पानी जुटाने में लगे छोटे बच्चों(लड़के, लड़कियां दोनों), औरतों तथा लड़कियों की कष्टमय दिनचर्या पर किया।महाराष्ट्र में पानी तथा पर्यावरण के मुद्दों पर काम कर रहे एक सज्जन ने बताया कि टैंकर के आने पर पानी लेने की मारा मारी में कई लोग कुचले जाते हैं और कई लोगों की मौत होगई है । एक पचास साल की  महिला को कुएं से पानी भरते समय चक्कर आगया और वह गिर कर मर गई।महाराष्ट्र में मध्यम वर्ग में सामाजिक काम करने की परंपरा रही है। इन्ही सामाजिक कार्यकर्ताओं जरिये मीडिया कर्मियों को भी पता चला कि महाराष्ट्र में महिलाओं तथा बच्चों को पानी एकत्र करने में किन किन परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। यह तथ्य भी सामने आया है कि बड़े लड़के व पुरुष घर में बैठे रहते हैं जबकि बच्चे,लड़किया व औरतें परिवार के लिए पानी जुटाने में अपनी सारी ताकत लगा देती है। यह पितृसत्ता का एक और नृशंस चेहरा है। इस चिलचिलाती धूप में ये लोग नंगे पांव ही पानी की तलाश में निकलते हैं। बूढ़ों विकलांगों की हालत का पता नही चल पाया।पानी लाने की प्रक्रिया में लड़कियों के स्कूल भी छूट गये हैं।
फिर भी महाराष्ट्र में पत्रकार भी दिलाशा जैसे संगठन जन सेवा के लिए चला रहे हैं। उनकी मदद से राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकार गांव गांव पहुच कर लोगों की कठिनाइयों को मीडिया में उजागर कर रहे हैं। तथा बच्चियों की पढ़ाई जारी रखने के लिए अपने योगदान का ऐलान भी करते हैं।अन्य राज्यों में जहां समाज सेवा की संस्कृति नही है वहां के लोगों की मानवीय समस्याएं महज आकड़े बन कर रह गए हैं। 10 से 13 राज्य सूखे से प्रभावित बताए गए हैं।(केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपने हलफनामे में बताया है कि देश के दस राज्यों में 33करोड़ लोग पानी का अकाल झेल रहे हैं।)ये आकड़े यह नही बताते हैं कि इऩ गावों में पानी के अभाव में समाज के विभिन्न तबकों के लोग किस प्रकार गुजर बसर कर रहे हैं। हमें केवल इतना पता चलता है कि बुन्देलखंड क्षेत्र के गांव के गांव खाली हो गए हैं।लेकिन जो थोड़े बहुत लोग गांव में रह गए हैं खास कर महिलाएं,बूढ़े, विकलांग उनको पानी कहां से व कैसे मिल रहा है। पशुओं के चारा पानी का क्या प्रबंध है।जंगली पशुओं की क्या हालत है। महाराष्ट्र में पानी की तलाश में हिरनों के झुंड गावों की ओर आते टीवी में दिख रहे हैं। लेकिन अन्य राज्यों में अकाल से प्रभावित लोगों की वेदना उन क्षेत्रों से बाहर नही आरही है।महाराष्ट्र के कुछ सक्रिय  समाजसेवियों के अलावा राज्यों के अकाल पीड़ित लोगों की पीड़ा के बारे में नागरिक समाज उसी प्रकार उदासीन है जिस प्रकार कर्जे के बोझ से दबे किसानों द्वारा की जारही आत्महत्याओं के बारे में।
अब देखिये हो क्या रहा है।
अभी 24 अप्रेल को प्रधान मंत्री ने अपने मन की बात में पानी के संकट पर अपने विचार रखे । परन्तु पानी के लिए तड़पते लोगों को अपनी सरकार की ओर से कोई आश्वासन नही दिया। माताओँ व बेटियों के लिए संवेदनशील प्रधान मंत्री तक शायद परिवार के लिए पानी इकट्ठा करने की उनकी व्यथा पर शायद पहुची ही न हो। लेकिन प्रधान मंत्री  ने तो अपनी मां का कष्टमय जीवन देखा है। उनको इन माताओँ व बेटियों के कष्टों का भान तो होगा ही।खैर प्रधान मंत्री उन गावों के बारे बताते रहे जहां पर लोगों ने स्वंय जल संकट से निपटने की रणनीति बनाई है और खुशहाल जीवन जी रहे  हैं।जल संकट का महिला एंगल उन्होंने नजरअंदाज ही कर दिया। हां अच्छे बारिष होने की मौसम विभाग की घोषणा का जिक्र अवश्य किया।सुप्रीम कोर्ट के कड़े सवालों के जवाब में सरकार ने हलफनामा देकर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री समझ ली है। 27 तारीख को राज्य सभा में सूखे पर बहस हुई है। इस बहस में भी (जितना मैं सुन पाई) किसी भी सांसद ने फौरी उपायों का जिक्र नही किया। किसी ने भी अपने संसदीय क्षेत्र की मानवीय तथा पशु पक्षियों की पीड़ा को नही बताया। शायद उन्हें मालूम ही न हो। किसी ने भी अपने संसदीय क्षेत्र में टेंकर भेजने की आवश्यकता नहीं बताई। पशुओं के लिए चारे पानी की सामूहिक व्यवस्था की मांग भी नहीं की। साफ लग रहा था सरकार ही नही सांसद (सत्ताधारी व विपक्ष दोनों ही) आमजन की व्यथा से व्यथित नहीं थे। कैसी बिडम्बना है कि मुख्य न्यायाधीश जेलों में न्याय की आस में बरसों से पड़े लोगों की व्यथा बताते हुए भरी सभा में रो पड़ते हैं पर हमारे माननीय जो अपने संसदीय क्षेत्र के लोगों की सेवा करने के नाम पर अनगिनत सुविधाओं को भोगते रहते हैं उस क्षेत्र के लोगों के सामने आए इस अस्तित्व के संकट से विचलित नहीं होते और निरपेक्ष भाव से भविष्य के लिए नीतियां बनाने के सुझाव देते हैं। अरे पहले अभी तो लोगों,व पशुओं को मरने से बचाइये। फिर भविष्य की चिंता कीजिये। लोगों, व पशुओं को मरने से बचाने के लिए फौरी इंतजाम करने होंगे।पानी के संकट को कम करने के लिए पानी बचाना होगा।अपने स्वंय के एशो आराम पर कुछ अंकुश लगाना होगा। (उस दिन टीवी पर एक पर्यावरण विशेषज्ञ बता रहे थे कि चार साल के पानी के संकट से उबरने के लिए कैलिफोर्निया में पानी बचाने के लिए सारे तरणतालों को ही पाट दिया गया है। टी वी एंकर भी इससे आश्चर्यचकित था। शायद बिना तरणताल के उसे अपना अस्तित्व संकट में लग रहा हो।)जैसे लाल बहादुर शास्त्री ने अन्न बचाने की मुहिम चलाई थी वैसे ही पानी बचाने की मुहिम चलानी होगी। इसमें सरकार तथा नागरिक समाज दोनों की अहम भूमिका है। जिसको कोई नहीं निभा रहा है।  कारण सभी उपभोक्तावाद की बीमारी से ग्रसित हैं।
  मसलन् केंद्र तथा राज्यों की सरकारों ने एडवाइजरी जारी कर अपने विभागों से पानी बचाने की अपील नही की है। उल्टे केंद्रीय मंत्रियों तथा राज्य के मुख्य मंत्रियों को धूल मिट्टी से बचाने के लिए हैलीपैड या सड़क पर हजारों लीटर पानी का छिड़काव किये जाने के समाचार पढ़ने सुनने या देखने को मिल रहे हैं। आंध्र प्रदेश में तो मंत्री महोदय पानी की समस्या पर विचार विमर्श के लिए ही गए थे जब हैलीपैड नें हजारों लीटर पानी डाला गया। सभी पार्टियों के प्रवक्ता चैनलों में बेशर्मी से इसका बचाव करते रहते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन माननीयों को लोगों के गुस्से का डर नहीं है। डर हो भी क्यों। सभी तो एक से हैं। लोगों के पास चुनाव में कोई विकल्प नही रहता है।
 महामहिम राष्ट्रपति, तथा उपराष्ट्रपति देश के ज्वलंत मुद्दों पर अपनी राय रखते रहते हैं। परंतु पानी के मुद्दे पर उन्होंने कुछ कहा हो पढ़ने को नही मिला।प्रधान मंत्री ने अपने मंत्रियों तथा सांसदों से अपने घरों तथा पार्टी दफ्तरों में पानी की बचत करने की अपील नही की। प्रधान मंत्री स्वंय अपने आवास में पानी का राशनिंग करके एक उदाहरण रख सकते थे। पर नही किया। ऐसा ही राज्यों के गवर्नर तथा मुख्य मंत्री भी कर सकते थे। शायद अपनी व्यस्तता में ये माननीय ऐसा करना भूल गए हों। मुझे याद है बहुत साल पहले पश्चिम बंगाल में बिजली की किल्लत हो रही थी।तब वहां के राज्यपाल ने स्वयं राजभवन में बिजली की खपत नियंत्रित करने के निर्देश दिये थे। तब वहां वामपंथ की सरकार थी। तब वहां भी सरकारी दफ्तरों में या सरकारी आवासों में बिजली का उपभोग कम करने के निर्देशों के बारे मे नहीं पढ़ा।इसी प्रकार बाढ़ या सुनामी के समय एक दक्षिण पुर्वी देश के राष्ट्रपति ने(देश का नाम याद नहीं है) राष्ट्रपति भवन के दरवाजे इस आपदा में बेघर हुए लोगों के लिए खोल दिये थे। काश हमारे देश में भी इस प्रकार के संवेदनशील राजनीतिज्ञ होते।
यदि राजनीतिक तंत्र (जिसको जनप्रतिनिधि चलाते हैं) को जनता के कष्ट खासकर महिलाओं व बच्चों (जो दोहरी मार झेल रहे हैं एक पानी की कमी की वजह से पूरे परिवार की अर्थव्यवस्था का संकट , दूसरा रोज रोज पूरे परिवार के लिए पानी जुटाने का संकट) की परेशानियों के बारे में संवेदनशील नही है तो प्रशासनिक तंत्र से इसकी उमीद करना भी बेइमानी है। वे तो अपने मंत्रियों को धूल मिट्टी से बचाने के लिए सरकारी मशीनरी को झोंकने में ही अपना भला समझते होंगे।इसी से उनको तरक्की मिलती है।
यदि सरकारी तंत्र (चाहे वह किसी भी दल का हो) का रवैया असंवेदनशील है तो विपक्ष भी सत्तारूड़ दल से पीछे नही हैं। राहुल गांधी गरीब बस्तियों में जाते रहते हैं।जब उनकी केंद्र में सरकार थी उन्होंने बुंदेलखंड के लिए विशेष पैकेज का एलान भी करवाया। लेकिन स्थानीय स्तर पर स्थानीय नेताओं के माध्यम से वह वहां के लोगों को राहत पहुचाने के प्रयत्न कर सकते थे।लेकिन नही किया। पानी बचाने की मुहिम नागरिक समाज के स्तर पर तो चला सकते थे। शायद आज जनसेवा राजनाति में नहीं आती है।सार्वजनिक धन से लोगों को टुकड़े देना फिर उनके एवज वोट बटोरना ही राजनीति रह गई है। इसीलिए उन्होंने या कांग्रेस अध्यक्षा ने भी अपने घरों व पार्टी दफ्तरों में पानी का राशनिंग करने का एलान नही किया, और न ही कांग्रेस के सांसदों तथा विधायकों से अपने अपने व घरों दफ्तरों में पानी का राशनिंग करने की एजवारजरी जारी की। आम आदमी पार्टी की सरकार मराठवाड़ा को पानी भेजने तैयार थी। पर बुंदेलखंड के लोगों का दर्द उन्हें नही पसीजता।
हालांकि हर चैनल गावों की बदहाली दिखा रहा है परंतु नागरिक समाज की अपेक्षित प्रतिक्रिया नहीं है। आमतौर पर प्राकृतिक आपदा के समय नागरिक समाज सक्रिय हो जाता है लेकिन इस आपदा के प्रति उदासीन है। आज हमारे समाज में साधु संतों महंत बाबाओं का बोलबाला है। विश्व के कई देशों में अपने करोड़ो अरबों अनुयायी होने का ये लोग दावा करते हैं। लेकिन प्राणीमात्र के सामने आए अस्तित्व के इस संकट पर ये भी चुप्पी साधे हैं।इनमें से किसी ने पानी बचाने की अपील तथा प्यासों तक पानी पहुचाने की गुहार नही लगाई है।

   इस प्रकार मुझे लगता है आज पानी के संकट से बड़ा संवेदना का संकट है।

शनिवार, 15 अगस्त 2015

प्रधान सेवक जी यह कैसी सेवा

Iजनसत्ता 14,8,2015
प्रधान सेवक जी यह कैसी सेवा है!!!
१४ अगस्त २०१५ को सुरक्षा के नाम पर  देश की सेवा में अपनी जवानी समर्पित कर अब बुढ़ापे में अपनी जायज़ माँगों को मनवाने के लिए पिछले ६० दिन से धूप,  बारिश , आँधी की परवाह किये बग़ैर जन्तर मन्तर में धरना दे रहे इन पूर्व सैनिकों पर क़हर बरपाया। आपकी पुलिस द्वारा उनकी फाड़ी गई क़मीज़ों से लटक रह उनके पदक आपकी सेवा की कहानी कह रहे थे। आपकी पुलिस की इस करतूत ने हर आम भारतीय को शर्मसार कर दिया। शायद मेरी तरह हर भारतीय उम्मीद लगाए  था कि आप , आज १५ अगस्त को , पूर्व सैनिकों के आहत सम्मान  पर मरहम लगाने के लिए वन रैंक वन पैन्सन को लागू करने की घोषणा कर देंगे।
        सत्ता पाते ही आपने अपने को प्रधान सेवक घोषित किया। सेवा तो कमज़ोर तबक़ों की होती है। जन्तर मन्तर में धरने पर बैठे पूर्व सैनिक ७०साल ८०साल कुछ तो ९० साल से भी ऊपर की आयु के हैं। वे आप से किसी प्रकार की सेवा नहीं माँग रहे हैं बल्कि वे हक़ माँग रहे हैं जो उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले के अनुसार उनके हैं। जिन पर संसद ने दो बार अपनी सहमति जताई है । चुनाव जीतने की ख़ातिर जब आपने उनसे न्यायालय के फ़ैसले पर अमल करने का वादा किया था तो सोच समझ कर ही  किया होगा। यह कहना आपको मालूम नहीं था कि मामला जटिल है आपको नहीं सुहाता।यदि आप जटिल समस्या निदान नहीं कर सकते तो ५६ इंच की छाती पर घमण्ड करने का क्या मतलब है?
         वैसे भी क्या ७० साल या इससे अधिक आयु वाले बृद्ध से और इन्तज़ार करने के लिए कहना उसके साथ भद्दा मज़ाक़ नहीं है। आपकी सरकार को कारपोरेट जगत को करोड़ों रुपये की टैक्स रिबेट देने में कोई अड़चन नहीं आती।    बैंकों में नान परफौरमिंग एसैट के बढ़ जाने से सरकारी बैंकों की हालत ख़स्ता होने लगी तो वित्त मंत्री ने १४ अगस्त को ७०हजार करोड रुपये की राहत बैंकों को देने की घोषणा कर दी। बैंकों की इस ख़स्ता हालत के लिए भी बड़े बड़े औद्योगिक घराने ही ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने अपना क़र्ज़ बैंकों को नहीं लौटाया है। आश्चर्य कि किसी भी सरकार को औद्योगिक व ब्यापारिक घरानों को दोनों हाथों से सरकारी धन लुटाने में कोई जटिलता नज़र नहीं आती। पर जब अनाज को सड़ाने के बजाय भूखी जनता को देने का उच्चतम न्यायालय का सुझाव आता है तो हमारे मौनी मनमोहन सिंह तक अदालत पर विफर जाते हैं। आपको पूर्व सैनिकों के परिवारों के वोट लेते समय तो ओआरओपी को लागू करने में जटिलता नहीं दिखी तो अब भी नहीं दिखनी चाहिये।जहाँ तक धन का प्रश्न सरकार अपनी फ़िज़ूलख़र्ची कम करे तो उससे पूर्व सैनिकों के हक़ों की पूर्ति के अलावा इस देश के हर नागरिक की रोटी ,कपड़ा  ,मकान, शिक्षा व स्वास्थ्य की समस्या भी हल हो सकती है । उसके लिए सेवक बनने का दम भरने की ज़रूरत नहीं होती सेवक बनके दिखाना पड़ता है।
               कल रात ndtv के  रवीश कुमार के  रात ९ बजे के प्रोग्राम में एक पूर्व सैनिक की पत्नी ने कहा कि मोदी जी नेपाल के मंदिर के लिए चंदन की आपूर्ति के लिए तीन करोड़ रुपये दे सकते हैं परन्तु हमारी पैंन्सन केलिएउनके पास पैसे नहीं है। यह उस सरकारी ख़र्चे की तरफ़ इशारा था जिस पर सरकार दिल खोल कर दोनों हाथोंसे धन उलीच रही है। हमारे राष्ट्रीय तथा प्रांतीय स्तर के नेता किसी न किसी बहाने से सरकारी धन से विदेशोंकी सैर करते रहते हैं। टाइम्स नाउ  ने कई बार इस तरह की विदेशी यात्राओं की बेवाक भाषा में पोल खोली । पर सरकारी तंत्र को शायद ही कोई असर पड़ा हो। संक्षेप में यह प्रश्न जटिलताओं का नहीं है। यह प्रश्न प्रार्थमिकता का है।

शनिवार, 6 जून 2015

और नन्हे भालू ने लकड़ी का घर नहीं बनाया !!!



और नन्हे भालू ने लकड़ी का घर नहीं बनाया !!!

(कल विश्व पर्यावरण दिवस था। डीजल चलित गाड़ियों में सवार होकर एयर कंडीसंड कमरों  में बैठकर विगड़ते पर्यावरण पर विशेषज्ञों ने खूब माथापच्ची की।वह सब देख सुन कर मुझे चीनी भाषा में बच्चों की यह कहानी याद आगई।)

चीन की एक पहाड़ी गुफा में भालू का एक बड़ा परिवार रहता था। परिवार में दादा, दादी, अम्मा, बाबा के साथ साथ छोटे बच्चे भी रहते थे। इतने सारे प्राणियों के लिए गुफा छोटी पड़ती थी। इसलिए दादा भालू ने नन्हे पोते भालू को सुझाव दिया कि वह पास के जंगल से लकड़ी काट कर एक लकड़ी का घर बनाए।

नन्हा भालू बसन्त ऋतु के आगमन के साथ ही घर बनाने के लिए लकड़ी काटने पास के घने जंगल में घुसा। जंगल में गजब की हरियाली छाई थी। वहां के सारे पेड़ हरे हरे पत्तों से अपना श्रंगार किये थे। नन्हे भालू को यह हरियाली इतनी भाई कि इन सजे धजे सुंदर हरे हरे पेड़ो को को काट कर अपना घर बनाना उसे अच्छा नही लगा। और वह खाली हाथ गुफा लौट आया। बसन्त के बाद ग्रीष्म ऋतु आई। नन्हा भालू फिर जंगल में पेड़ काटने गया। लेकिन जंगल के सारे पेड़ रंग बिरंगी फूलों की चादर ओढ़े थे। सारा जंगल उन फूलों की खुशबू से महक रहा था। नन्हा भालू इस रंग में भंग नही करना चाहता था। रंग बिरंगी फूलों से लदे पेड़ों को काटना उसको अच्छा नहीं लगा। बसन्त ऋतु की भांति ही इस बार भी वह खाली हाथ वापस गुफा में आगया। फिर आई हेमन्त ऋतु।नन्हा भालू फिर पेड़ काटने जंगल गया। इस बार जंगल के सारे पेड़ फलों से लदे थे। नन्हे भालू को लगा कि फलों से लदे पेड़ो को नहीं काटना चाहिये। एक बार फिर वह अपना सा मुह लेकर अपनी गुफा में खाली हाथ लौट आया। हेमन्त के बाद शिशिर ऋतु आई।नन्हे भालू को लगा घर बनाने का यह सबसे उत्तम समय है।वह जंगल की ओर चल पड़ा। इस बार जंगल में किसम किसम की चिड़ियों की चहचआहट गूज रही थी। हर पेड़ की डाल से उनके घोंसले लटक रहे थे। नन्हा भालू अपने एक घर के लिए इतनी चिड़ियों को कैसे बेघर कर सकता था। इसलिए बिना पेड़ काटे बह अपनी गुफा में वापस आगया। इस प्रकार साल दर साल गुजरते गए। नन्हे भालू को कोई भी ऐसा मौसम नहीं मिला जब किसी को हानि पहुचाए बिना वह पेड़ काटकर अपना घर बना सकता था। इसलिए वह खुशी खुशी अपनी पत्थर की गुफा में ही अपने बड़े परिवार के साथ रहने लगा। नन्हे भालू की इस जिओ और जीन दो की नीति का उस जंगल में रह रहे सभी जीव जन्तओँ ने स्वागत किया । उन्होंने नन्हे भालू का आभार जताने के लिए उसे ताजे फूलों का एक गुलदस्ता भैंट किया ।

गुरुवार, 7 मई 2015

महिला आयोग की महिला अधिकारों की समझ
दिल्ली महिला आयोग ने विरोधी दल की एक कार्यकर्ता की शिकायत पर फटाफट अमल करते हुए उसी दल को राष्ट्रीय स्तर के नेता को अपने दफ्तर में बुलाया। कार्यकर्ता चाहती है कि ये नेता महोदय तथाकथित का पति उन पर विश्वास कर फिर से महिला को अपना लें।यह प्रस्ताव ही महिला आंदोलन की जड़ों में मटठा डालता है और महिला को क्रमशः उसके पिता, भाई, पति व पुत्र की संपत्ति की भूमिका में पेश करता है। समूचे विश्व के देशों में महिला अधिकार का मूल मंत्र महिला का उसके स्वयं के शरीर, दिल व दिमाग पर पूर्ण नियंत्रण रहा है। उसे अपने संबंधों के बारे में न तो किसी से इजाजत लेने की आवश्यकता होनी चाहिये न किसी के सर्टिफिकेट की। ऐसे में भा.ज.पा. महिला शाखा का उस कार्यकर्ता की मांग के समर्थन में केजरीवाल के घर प्रदर्शन पूरे महिला आंदोलन की तौहीन है। लेकिन महिला आयोग तो एक संवैधानिक संस्था है। देश की राजधानी में धड़ल्ले से इसका इस्तेमाल श्रुद्र राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए किया जाना या महिला समानता विरोधी कार्यों को प्रोत्साहन देने के लिए किया जाना महिला आयोग के विधान का उल्लंघन है। क्या इसके विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं होना चाहिये।

बुधवार, 6 मई 2015

धनकड़ जी इन महिलाओं के लिए आपके पास कोई योजना है

धनकड़ जी इन महिलाओं के लिए आपके पास कोई योजना है
हरियाणा के कृषि मंत्री आत्महत्या करने वाले किसानों की पत्नियों के लिए घड़ियाली आंसू बहा रहे थे। दिसंबर 2014 को पी. साइनाथ ने किसान मजदूरनियों की दयनीय  स्थिति का वर्णन किया और उनकी हालत सुधारने के लिए कुछ सुझाव दिये।धनकड़ जी व उनकी पार्टी उन सुझावों पर अमल करने के बारे में क्या सोच रही है यह जानना अत्यतं आवश्यक है।
साइनाथ लिखते हैं कि ओडिसा के रायगड़ का वह जमींदार बहुत प्रसन्न था। उसकी फोटो जो खींची जारही थी। वह अपने खेत में सीधा तन कर खड़ा था। पास ही 9 महिला मजदूर दोहरी झुक कर उसके खेत में धान की रोपाई कर रही थी। उसने बताया कि वह उन महिला मजदूरों को रोज 40 रुपये 82 पैसे मजदूरी देता था। बाद में महिलाओं ने बताया कि उनको केवल 25 रुपया 51 पैसा दिया गया था। ये ओडिसा के रायगड़ की खेतीहर मजदूरनियों की व्यथा थी।
भारत में जमींदार परिवारों की महिलाओं को भी पिता या पति के घर भूस्वामित्व का अधिकार नहीं होता। परित्यक्त, विधवा अथवा तलाकशुदा महिला को भी पेट पालने के लिए रिस्तेदारों के खेतों में मजदूरी करनी होती है। सरकारी आंकड़ो के अनुसार भारत में कुल 6करोड़ 30लाख महिला मजदूर हैं।इनमें से 2 करोड़ 80लाख  यानी 45 प्रतिशत खेतीहर मजदूर हैं। यह आकड़ा भी गलत है।इसमें वे मजदूर सम्मिलित नहीं हैं जो साल में 6 महिने या उससे अधिक रोजगार नहीं पाते। यह बहुत बड़ी चूक है।इसकी वजह से लाखों महिलाएं मजदूरनियों की श्रेणी में नहीं आती। इस प्रकार उनका राष्ट्र की अर्थब्यवस्था में योगदान अदृश्य ही रह जाता है। प्रत्यक्ष कृषि कार्य के अलावा जो भी काम ग्रामीण महिलाएं करती हैं उसको घरेलू काम कह कर नजरअंदाज कर दिया जाता है। सरकार द्वारा मान्य आर्थिक गतिविधि में भी कृषि कार्य ही महिलाओं के लिए सबसे बड़ा रोजगार की सुविधा है। इस आर्थिक गतिविधि में भी मामूली मजदूरी वाली खेती मजदूरी ही गरीब महिलाओं के लिए उपलब्ध  होती है। उदारीकरण के इस दौर में इस मामुली मजदूरी की उपलब्धता के दिन भी कम होते जारहे हैं। सरकारी आर्थिक नीतियां,मशीनीकरण, नकदी फसल.ठेकेदीरी प्रथा इसके लिए जिम्मेदार हैं।
आंध्र प्रदेश के अनन्तपुर गांव में केवल कीड़े मकोड़े पकड़ने का काम महिलाओं को उपलब्ध है। फोटो में दो लड़कियां लाल बालों वाली Caterpillars पकड़ रही हैं। जमींदार इनको एक किलो Caterpillars(यानी एक हजार से अधिक) पकड़ने के इनको 10रुपये 20 पैसे देता है। संसाधनों पर नियंत्रण (यानि मिल्कियत)नहीं होने से गरीबों खास कर महिलाओं की स्थिति काफी कमजोर हो जाती है।संपत्ति की मिल्कियत के साथ ही सामाजिक status भी जुड़ा है। बहुत थोड़ी महिलाएं जमीन की मालिक होती हैं। पंचायतीराज में उनकी भागीदारी तभी प्रभावशाली होगी जब वे जमीन की मालिक होंगी।        खेतीहर मजदूरों में दलितों की संख्या सर्वाधिक है। करीब 67 प्रतिशत खेतीहर मजदूरनियां दलित हैं। इनका तिहरा जाति आधरित, वर्ग आधरित व लिंग आधारित शोषण होता है। भूमि का अधिकार गरीब व निम्न कही जाने वाली जातियों की महिलाओं सामाजिक स्थिति सुदृड़ बनाएगा। अपनी जमीन होने पर यदि उन्हें दूसरों के खेतों में काम करना भी पड़ेगा तो अपनी मजदूरी के लिए मोल भाव कर सकती हैं। आवसश्यकता पड़ने पर न्यायिक शर्तों पर ऋण लेना भी संभव होगा।
इससे उनकी तथा उनके परिवारों की गरीबी दूर होगी। पुरुष अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा स्वयं पर खर्च करते हैं । जबकि महिलाएं अपनी पूरी आय परिवार पर खर्च करती हैं। महिलाओं की आय बढ़ने से बच्चों की स्थिति भी सुधरेगी। वास्तव में भारत में गरीबी की समस्या सुलझाने के लिए महिलाओं की भूमि का अधिकार मिलना चाहिये। पश्चिमी बंगाल में 400,000 परिवारों को भूमि का पट्टा संयुक्त नाम पर देकर एक पहल की है। परन्तु अभी काफी सम्बा रास्ता तय करना है।  चूंकि महिलाओं को हल चलाने की आजादी नहीं हैं इसलिए जमीन जोतने वाले की के नारे के बदले नया नारा जमीन उस पर काम करने वाले की होना चाहिये।

सोमवार, 17 नवंबर 2014

सजा नही जड़ से सुधार की दरकार है



सजा नही जड़ से सुधार की दरकार है
छत्तीसगड़, उदारीकरण ,भ्रष्टाचार, दलित और आदिवासी महिलाऐं, शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं
डाक्टर मुख्य मंत्री की सुशासित स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल एक बार फिर खुल गई।इससे पहले मोतियाबिंद आपरेशन के नाम पर गरीबों की आखें फोड़ दी गई।(http://zeenews.india.com/news/chhattisgarh/62-people-lost-vision-after-cataract-surgery-at-camps-minister_830388.html) फिर कैंसर का भय दिखाकर गरीब महिलाओँ के गर्भाशय गैर कानूनी तरीके से निकाल लिए गए।http://www.reuters.com/article/2012/07/18/us-india-doctors-corruption-idUSBRE86H0P520120718
  परन्तु किसी भी जिम्मेदार डाक्टर ,प्रशासनिक अधिकारी तथा राजनीतिक शासक को उनकी गलती की सजा नही मिली। छत्तीसगड़ एक बार फिर समाचारों में है। सारा देश स्तब्ध है। 50 हजार शल्य चिकित्सा करने की वजह से डाक्टर मुख्य मंत्री द्वारा पुरस्कृत डा. गुप्ता ने कुछ ही घंटों में 83 गरीब दलित व आदिवासी महिलाओं के स्टरलाइजेशन आपरेशन कर दिये। जो कि सरकारी नियम कानूनों के विरुद्ध है। ऊपर से अप्रेल से बंद पड़े एक निजी अस्पताल में जहां पर शल्य चिकित्सा के लिए जरूरी सुविधाओं का पूर्ण अभाव है, में ये नसबंदी आपरेशन किये गए।(http://www.ndtv.com/article/india/chhattisgarh-sterilisation-deaths-hospital-was-shut-since-april-has-no-basic-infrastructure-620007)   इस बार सरकार ने जन दबाव में जिम्मेदार डाक्टर तथा अंय लोगों के विरुद्ध कार्यवाही कर दी है।साथ ही जांच के भी आदेश दे दिये हैं। पर इससे होगा क्या। मीडिया में जो सूचनाएँ आरही हैं उनसे पता चलता है कि आरोपी लोग ताकतवर तथा सत्ता के नजदीक हैं। भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जांच की रपट या तो समय पर आती ही नहीं है। यदि आती भी है तो उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। ऊपर से टी वी चैनल सबूत नष्ट किये जाने वाली फोटो भी दिखा रहे हैं। सबूतों के अभाव में कैसी रिपोर्ट आएगी। यह भी सोचा जा सकता है। सिविल सोसाइटी राजनीतिक प्रमुखों के इस्तीफे की मांग कर रही है। कुछ डाक्टरों तथा प्रशासकों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करने से या राजनीतिकज्ञों के इस्तीफे से क्या भविष्य में इस प्रकार के हादसे नहीं होंगे। ऐसी संभावना नहीं के बराबर है।
     कारण खाली लक्षणों के इलाज से बीमारी जड़ से समाप्त नहीं हो सकती। बीमारी तो उसके कारणों के तह तक जाकर उसके निदान से ही जाएगी। अतः सबसे पहले हमें बीमारी के कारण जानने और समझने हैं। बीमारी के कारण इस घटना की रिपोर्टों में ही साफ झलकते हैं। सर्व प्रथम ये आकड़े पूरे करने की मानसिकता-- जो गरीबों के जीवन तथा स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने को डाक्टरों को मजबूर करती है। दूसरा आकड़ों के लक्ष्य को पूरा करने के लिए गरीब औरतों (जो संयोगवश दलित और आदिवासी भी होती हैं।) को ही चुना जाना है। क्या इससे औपनिवेशिकता तथा सदियों से चले जातीय विद्वेश के बू नही आती। यहां यह बताना प्रासंगिक है कि 1897 में अंग्रेजी सरकार ने प्लेग की रोकथाम के नाम पर भारतीय महिलाओं की जबरन जांच तथा बचाव के अंय कार्यक्रम शुरु किये। इस प्रक्रिया में  भी नारी की अस्मिता का ध्यान नहीं रखा गया। तब पंडिता रमाबाई ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई, व तत्कालीन सरकार के साथ साथ चर्च की नाराजगी भी मोल ली। इसके परिणामस्वरुप, बिट्रिश संसद में इस विषय पर सवाल जवाब हुए। आज जिस तरह से औरतों को पकड़ कर (यह आलग बात है कि इसे काउंसिलिंग का नाम दिया जाता है) नस बंदी की जाती है या बच्चादानी ही निकाल ली जाती है उससे हमारी शासनिक और प्रशासनिक व्यवस्था को चलाने वालों की औपनिवेशिक मानसिकता के साथ साथ डाक्टरों की अपनी नैतिक जिम्मेदारी जो शपथ के रूप में उनको दी जाती है के प्रति उदासीन होना भी दर्शाता है। साथ ही वह जातिवादी मानसिकता भी झलकती है जिसके तहत समाज की कुछ जातियों को गावों, कस्बों में गंदगी के बीच रहने मजबूर किया जाता रहा है।(गंदगी में रहने वालों इन गरीबों को अस्वास्थ्यकर परिवेष तथा औजारों से कुछ नहीं होता वाली मानसिकता) पूरे समाज में व्याप्त है।
 यह भी सोचने की बात है कि क्यों पिछले 6 महिने से बंद पड़े निजी अस्पताल में ये आपरेशन किये गए। यदि हर तालुक, हर जिले में आधुनिक सुविधाओं से लैस सरकारी अस्पताल होते तो एक वीरान अस्पताल में क्यों ये आपरेशन होते। तवलीन सिंह जनसत्ता में छपे अपने लेख में लिखती है कि यदि नेहरू की शिक्षा तथा स्वास्थ्य नीति ठीक होती तो छत्तीसगड़ में नसबंदी के नाम पर सामूहिक कत्लेआम नहीं होता। नेहरू सिर्फ 17 साल देश के प्रधान मंत्री रहे जबकि पिछले 15 साल से भाजप  प्रदेश में राज कर रही है। आकड़े बताएंगे नेहरू के 17 सालों में कई चुनौतियों के बावजूद सार्वजनकि शिक्षा तथा स्वास्थ्य में जो गुणवत्ता आई वह अब पूरे देश में लोप हो रही  हैं। कारण है उदारीकरण की नीति।  जिस पर भारत 1992 से चल रहा है तथा जिसकी पैरोकार भाजप तथा उससे पहले जनसंघ हमेशा रहे। इसी उदारीकरण की नीति के चलते शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण होरहा है। अब सबके लिए शिक्षा सबके लिए स्वास्थ्य के सिद्धांत को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। इस प्रकार आजादी के बाद नेहरू युग में स्वतंत्रता, समानता का जो थोड़ा बहुत वातावरण बना भी था उसको समाप्त करने का प्रबंध सत्ता तंत्र उदारीकरण के इस दौर में तेजी से कर रहा है। शिक्षा तंत्र में निजीकरण को बढ़ावा देकर सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की गुणवतत्ता को धीरे धीरे समाप्त कर दिया गया है। अब सरकारी विद्यालयों में शिक्षा के बजाय बच्चों को ऐसा मिड डे मील मिलता है जिसको खाकर अक्सर उनके बीमार होने कभी कभी जान से हाथ धोने के दारुण सामाचार मिलते हैं। इस मिड  डे मील की व्यवस्था से किन स्वार्थी तत्वों की गरीबी दूर हो रही है .यह जांच का विषय है। क्यों कि इस देश में गरीबों के  नाम पर बनने वाली सारी योजनाओं से अमीर ही अधिक अमीर होते रहे हैं। गरीबो की बदहाली बढ़ती ही रही है।
आज निजी शिक्षा व स्वास्थ्य संस्थानों का बोलबाला है।साधन संपंन जो सामान्यतः सवर्ण भी होते हैं इन संस्थानों से हर प्रकार से लाभांवित हो रहे हैं। सरकारों में सवर्णों के साथ साथ करोड़पतियों व अरबपतियों की तूती बोल रही है अतः सरकारी शिक्षा व स्वास्थ्य क्षेत्र को हर प्रकार से पंगु करने की कोशिश होरही है। रही सही कसर जातिवादी मानसिकता पूरी कर देती है। इसीलिए पूरे देश के सरकारी विद्यालयों में प्रशिक्षित अध्यापकों की जगह(सर्टीफिकेट में कुछ भी योग्यता हो) वास्तव में महज साक्षर शिक्षामित्रों ने ले ली है। उनको मानदेय भी पर्याप्त नहीं मिलता। जहां प्रशिक्षित अध्यापक हैं भी वे या तो स्कूल जाते ही नही, जाते हैं तो पढ़ाते नहीं। निगरानी तंत्र भी पूरी तरह फेल है।क्यों उनके तथा उनके वर्ग एवं जाति के बच्चे इन स्कूलों में पढ़ने नही जाते। यहीं हाल स्वास्थ्य सेवाओं `का है।जिस गंदगी के बीच तथा जिस तरह के जंग लगे औजारों से इन औरतों की नसबंदी हुई क्या वैसे अस्वास्थ्यकर परिवेश में इस पूरे कार्यक्रम से जुड़े लोग अपने पालतू पशुओं का इलाज कराना भी पसंद करते। यदि नहीं तो फिर इनका क्यों किया गया।
 एक सवाल यह भी उठता है कि क्या  यह केवल डाक्टर की लापरवाही, या आंकड़ों की बाजीगरी कर एक और पुरुस्कार हासिल करने का अति उत्साह भर था या पूरे स्वास्थ्य तंत्र दीमक लगने का है । मसलन यदि सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था दुरुस्त  होती हर ब्लाक, तालुक, जिले में सारी मूल भूत सुविधाओं से लैस सरकारी अस्पताल होते तो ये आपरेशन एक बंद पड़े अस्पताल में अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में नही किये जाते। सार्वजनिक क्षेत्र में अस्पतालों की पर्याप्त ब्यवस्था नहीं होने का एक कारण उदारीकरण भी  है। अमित सेन गुप्ता ने अपने लेख उदारीकरण को युग में स्वास्थ्य में लिखा है कि भारत में 1991 में मनमोहन सिंह ने स्वास्थ्य बजट में कटौती की तो राज्य सरकारों ने भी  बजट में कटौती कर दी। राज्य सरकारों की स्वास्थ्य बजट कटौती का असर बहुत गहरा पड़ा। स्वास्थ्य के साथ साथ पेय जल तथा स्वच्छता(sanitation) के लिए भी धन आबंटन में कमी की गई। इस सीमित बजट का भी अधिकतर हिस्सा शहरों में स्वास्थ्य सुविधाएं जुटाने में खर्च किया जाता रहा है। इस प्रकार सबसे पहले ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं पर इस कटौती का कुअसर पड़ा। दूसरा किसी भी योजना का 70से 89 प्रतिशत तक बजट कर्मचारियों के वेतन में चला जाता है। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं के संदर्भ में इससे बड़ी हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो गई है। बजट में कटौती की वजह से सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में मुलाजिम तो हैं पर इलाज करनें या जांच करने के लिए जरूरी सामान तक नही है।उदारीकरण कई अंय तरीकों से भी स्वास्थ्य सेवाओं को प्रभावित करता है। उदारीकरण से सार्वजनिक स्वास्थ्य के खतरों का transnationalisation होता है।परिणामस्वरूप पूरे विश्व में छूत की बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है।
आज इंसानों की तरह बीमारियां भी एक देश से दूसरे देश में तेजी से फैल रही हैं। इससे गरीब जनता को सबसे अधिक नुकसान होता है। कारण गरीबी और कुपोषण के कारण उनमें रोगों से लड़ने की क्षमता क्षीण होती है। Trade Related Intellectual Property Rights – (TRIPS) समझौते के तहत भारत को कठोर पेटेंट कानूनों को लागू करने मजबूर होना पड़ा। अब भारत में विदेशों में बनी दवाओं का सस्ता उत्पादन गैर कानूनी होगया। TRIPS ने बहुराष्ट्रीय निगमों को बहुत शक्तिशाली बना दिया। उनका लाभ कई गुना बढ़ गया है।
अब जो दवाएं बाजार में आरही हैं उनका गरीब देशों में होने वाली बीमारियों से ज्यादा मतलब नहीं है। कारण दवा उद्योग में शोध इन देशो के लोगों की स्वास्थ्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर नही की किये जाते वरन् दवा उद्योग के लाभ को बढ़ाने के लिए किये जाते हैं।कठोर कानूनों की वजह से नई दवाओं की खोज महंगी हो गई है। इस लिए दवा कंपनियों में विश्व स्तर पर merger होरहे हैं। अधिक लाभ कमाने के चक्कर में तीसरी दुनियों में जीवन रक्षक मानी जाने वाली दवाओं को ये विशाल दवा निगम नहीं बनाते हैं। आज सारा शोध दिल की बीमारियों या कैंसर के इलाज के लिए होरहा है। जबकि मलेरिया, हैजा, डैनगू,तथा AIDS जैसी बीमारियों के इलाज के शोध में कुल शोध में व्यय किये धन का केवल चार प्रतिशत व्यय होता है। दूसरे शब्दों में कुल 56 बिलियन डालर में से(जो पूरे विश्व में शोध में व्यय होता है) 10 प्रतिशत से भी कम 90 प्रतिशत लोगों स्वास्थ्य समस्याओं पर शोध करने के लिए व्यय होता है। 1950-60 के दशक में tropical बीमारियों के इलाज के लिये विकसित कुछ दवाएं अब बाजार में नहीं मि्लती। कारण विकसित देशों में उनका कोई उपयोग नहीं होता। (Amit Sengupta ,Health in the Age of Globalisation, Social Scientist, Vol. 31, No. 11/12, (Nov. - Dec., 2003), pp. 66-85,http://www.jstor.org/stable/3517950)
शहरीकरण व बेतरतीब विकास के कारण सीमित जगहों में जनसंख्या का घनत्व बढ़ता जारहा है। इन क्षेत्रों में कचरे के निपटान, मल-जल निकासी व्यवस्था या तो बिलकुल नहीं है या जो थी वह चरमरा गई है। नई तकनीक के साथ साथ नई सुविधाओं की उपलब्धता बढ़ जाने से प्रदूषण भी फैल रहा है। वनों के विनाश के अलावा कृषि के आधुनिक तरीके भी प्रदूषण, कुपोषण, और नई नई बीमारियों को न्यौता दे रहे हैं। इसलिए डेंगू, फाल्सीपेरम मलेरिया, चिकनगुनिया, स्वाइन फ्लू अब इबोला जैसी बीमारियो का प्रकोप बना हुआ है। उदारीकरण के इस युग में जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों की प्रार्थमिकता अपने देश की जनता के हित न होकर बहुराष्ट्रीय कंपनियां होती हैं। गरीबों के संदर्भ में यह उदासीनता लापरवाही की हद तक बढ़ जाती है। इसके अलावा हर सरकार के हर विभाग में लगा भ्रष्टाचार का घुन भी स्वार्थी तत्वों का रास्ता सहज बना देता है।इससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों को गरीबों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने की एक ओर से छूट मिल जाती है। इस खुली छूट का एक नमूना हाल ही में मध्य प्रदेश के स्कूलों में छात्रावास में रह रही छात्राओं को गर्भाशय के कैंसर से बचाव और प्रयोग के नाम पर लगाए गए टीके हैं। 2009 में आंध्र प्रदेश के खम्मम जिले में चौदह हजार लड़कियों को गार्डासिल की तीन खुराक दी गई। इनमें से करीब सवा सौ लड़कियों को मिरगी, एलर्जी, डायरिया, चक्कर आने और उल्टी की शिकायतें सामने आई। उनमें से कइयों  की बाद में मौत हो गई। मामले को रफा दफा कराने में  सरकारी अस्पतालों के डाक्टरों की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही। उन्होंने इन मौतों को आत्महत्या घोषित कर दिया। इसके अलावा  गुजरात के सरकारी स्कूलों की छात्राओं तथा आदिवासी छात्राओं पर इसी प्रकार के प्रयोग किए गए थे।(जनसत्ता संपादकीय, 15,10,2010) सरकार नकली दवा कंपनियों पर तो नकेल नही कस पारही है साथ ही नामी कंपनियों पर भी नजर रखने में नाकाम साबित हो रही है। मसलन् 2010 में लगक्भग डेढ़ सौ कंपनियों ने मूल्य निर्धारण के तहत आनी वाली दवाओं को अधिक कीमत पर बेच कर ग्राहकों को सवा तेइस सौ करोड़ रुपये का चूना लगाया। राष्ट्रीय दवा मूल्य नियामक प्राधिकरण की दवा कंपनियों के भ्रष्ट आचरण पर नकेल कसने की इच्छा शक्ति दिखाई नहीं देती। (जनसत्ता 2.3. 11,व 4,3,11)

दूसरा डाक्टर को यदि आपनी शपथ पर आस्था होती तो वह ऐसी गंदी जगह में और ऐसे जंग लगे औजारों से, मानदंडों द्वारा निर्धारित संख्या से इतने अधिक आपरेशन नही करते ।
साथ ही सरकारी तंत्र यहां तक विशेषज्ञों का आम गरीब गुरुबों(जो इस जातिवादी हिंदू समाज में तथाकथित निम्न कही जाने वाली जातियों से भी आते हैं ) के प्रति असंवेदनशील होने का है। साफ है अपने देश में गरीबों से पशुओं से भी बदतर सलूक करने की संपंन वर्गों की धार्मिक, सामाजिक परंपरा में आधुनिक शिक्षा के बाद भी कोई परिवर्तन नहीं आया है। संक्षेप में यह केवल लापरवाही का मामला नहीं है। यह इस देश  के गरीबों के जीने के मूल अधिकारों के हनन का मामला है। यों तो संविधान प्रदत्त मूल अधिकार गरीबों के लिए आजाद भारत में लागू हो ही नहीं पाए। परंतु उदारीकरण के बाद उनके जीने के अधिकार पर सबसे ज्यादा चोट पड़ी है। इसलिए यदि गरीबों के मूल अधिकारों का संरक्षण करना है तो शिक्षा तथा स्वास्थ्य ब्यवस्थाओं को लोकहितकारी होना ही है।